क्रायो-ईएम सुविधाएं नई और उभरती बीमारियों से निपटने के लिए संरचनात्मक जीव विज्ञान, एंजाइमोलॉजी और दवा की खोज से जुड़े अनुसंधान में मदद कर सकती हैं
देश के शोधकर्ताओं की पहुंच जल्द ही चार क्रायोजेनिक-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (क्रायो-ईएम) सुविधाओं तक होगी, जोकि नई और उभरती बीमारियों से निपटने के लिए संरचनात्मक जीव विज्ञान, एंजाइमोलॉजी और दवाओं की खोज के क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका का मार्ग प्रशस्त करेगी।
क्रायो-ईएम ने हाल के दिनों में बड़े अणुओं (मैक्रोमोलेक्यूल्स) की संरचनात्मक जांच में क्रांति ला दी है। एक क्रांतिकारी तकनीक के तौर पर यह प्रगति संरचनात्मक जीवविज्ञानियों, रासायनिक जीवविज्ञानियों, और लिगैंड खोज, जिसने समकालीन एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी पर स्पष्ट बढ़त हासिल कर ली है, के लिए एक वरदान है। इन प्रगतियों को ध्यान में रखते हुए, क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी तकनीक को किसी मिश्रण में जैव-अणुओं के उच्च-रिज़ॉल्यूशन संरचना निर्धारण के लिए नोबेल पुरस्कार (2017) के माध्यम से मान्यता दी गई थी। रिज़ॉल्यूशन के संदर्भ में इस क्रांति की वजह से जीका वायरस की सतह पर पाई जाने वाली प्रोटीन की आण्विक-स्तर की समझ विकसित हुई और इस प्रकार संरचना-आधारित दवा की खोज, मुश्किल से क्रिस्टलीय स्वरूप ग्रहण करने वाले झिल्लीदार प्रोटीन और अन्य जटिल बड़े अणुओं (मैक्रोमोलेक्यूलर) की संरचना की व्याख्या करने में सहायता मिली।
विज्ञान एवं इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (एसईआरबी), जोकि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के तहत एक संस्थान है, द्वारा समर्थित राष्ट्रीय सुविधाएं बड़े अणुओं (मैक्रोमोलेक्यूलर) की संरचनाओं और जटिलताओं का पता लगाने में मदद करेंगी और संरचनात्मक जीव विज्ञान, एंजाइमोलॉजी, लिगैंड/दवा की खोज के क्षेत्र में नेतृत्व स्थापित करने के उद्देश्य से भारत में क्रायो-ईएम अनुसंधान के लिए अनुसंधान संबंधी ज्ञान का आधार और कौशल विकसित करेंगी।
देश के सभी दिशाओं-भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, चेन्नई; भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे; भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर; और बोस इंस्टीट्यूट, कोलकाता – में इन सुविधाओं की स्थापना से देश के विभिन्न हिस्सों में संरचनात्मक जीव विज्ञान के क्षेत्र में क्रायो-ईएम आधारित अनुसंधान को बढ़ाने में मदद मिलेगी। इन केन्द्रों को क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी के लिए एसईआरबी राष्ट्रीय सुविधा के रूप में नामित किया गया है और ये चिन्हित क्षेत्रों में काम करेंगे। ये केन्द्र सभी शोधकर्ताओं के लिए सुलभ होंगे।
200केवी के मशीनों के साथ रखे जाने की वजह से इसके अपेक्षाकृत कम रखरखाव जैसे अतिरिक्त फायदे हैं और इससे प्रशिक्षण के जरिए मानव संसाधन तैयार करने में मदद मिल सकती है, जोकि इन सुविधाओं को लंबी अवधि तक बनाए रखने में भी मददगार साबित हो सकता है। प्रत्येक क्रायो-ईएम सुविधा की लागत पांच साल की अवधि के लिए लगभग 28.5 करोड़ रुपये है और अनुसंधान के बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अनुसंधान के लिए 114 करोड़ रुपये है।
आईआईटी चेन्नई जहां नैनो-बायोइंटरफेस (जैसे सामग्री-सूक्ष्मजीव, सामग्री-मानव ऊतक) पर ध्यान केन्द्रित करेगा, वहीँ आईआईटी बॉम्बे राइबोसोम अंतरण और रोग एवं एंटीबायोटिक प्रतिरोध में इसका प्रभाव, न्यूरोडीजेनेरेटिव विकारों और कैंसर, झिल्ली संरचना, संयोजन, गतिशीलता एवं परिवहन से जुड़ी समस्याओं से निपटने के बारे में शोध करेगा। आईआईटी कानपुर झिल्लीदार प्रोटीन पर विशेष फोकस के साथ बड़े अणुओं (मैक्रोमोलेक्यूलर) की संरचना और दवाओं की खोज पर केन्द्रित अनुसंधान करेगा और बोस इंस्टीट्यूट, कोलकाता संचारी और गैर-संचारी रोगों, एलोस्टेरिक दवाओं, ट्रांसक्रिप्शन और एपिजेनेटिक्स के लिए संरचना-निर्देशित दवा खोज और चिकित्सीय अनुसंधान में बदलाव लाने पर ध्यान केन्द्रित करेगा।
पहली राष्ट्रीय क्रायो-ईएम सुविधा 2017 में नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज (एनसीबीएस) में और उसके बाद आईआईएससी, बंगलुरू और आरसीबी फरीदाबाद में स्थापित की गई थी। हालांकि, यह महसूस किया गया कि देश में मौजूदा क्रायो-ईएम से जुड़ी अनुसंधान सुविधाएं वैश्विक स्तर पर अपनी छाप छोड़ने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। ऐतिहासिक रूप से, भारतीय वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। प्रोफेसर जी.एन. रामचंद्रन और डॉ. जी. कार्थ ने संरचनात्मक जीव विज्ञान, जैविक, रासायनिक, भौतिक, कम्प्यूटेशनल और सैद्धांतिक क्रिस्टलोग्राफी और सामग्री क्रिस्टलोग्राफी में उल्लेखनीय योगदान दिया है। बड़ी संरचनाओं वाले क्रायो-ईएम के संदर्भ में महत्वपूर्ण प्रगति को देखते हुए, एसईआरबी ने इस बात की जिम्मेदारी ली है कि भारतीय शोधकर्ताओं को आगे रहकर नेतृत्व करने में सक्षम और सशक्त बनाते हुए इस क्षेत्र में नेतृत्व स्थापित करने के उद्देश्य से समेकित वित्त पोषण प्रदान की जाए।