आरएसएस की तुलना तालिबान से करने वाले अपने बयान को फिल्मकार जावेद अख्तर ने सही ठहराया।
जावेद अख्तर जैसे मुसलमान देश में खतरनाक खेल खेल रहे हैं?
क्या जावेद अख्तर भारतीय फिल्म उद्योग में काम करने वाले मुसलमान खासकर महिलाओं के काम करने पर रोक लगवाएंगे?
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14 सितंबर को देश के सबसे बड़े अखबार दैनिक अख़बार में फिल्मकार जावेद अख्तर का लंबा चौड़ा बयान छपा है। कहा गया कि यह बयान जावेद अख्तर के उस बयान का जवाब है, जिसमें उन्होंने आरएसएस की तुलना तालिबान जैसे मुस्लिम चरमपंथी संगठन तालिबान से की थी। इस बयान के बाद देश में अख्तर की चौतरफा आलोचना हो रही है। लेकिन इस आलोचना की परवाह किए बगैर अख्तर ने अपने जवाब में भी आरएसएस की तुलना तालिबान से करने को सही ठहराया हे। अख्तर का कहना है कि जब उन्होंने तीन तलाक की प्रथा का विरोध किया था, तब वे मुस्लिम चरमपंथियों के निशाने पर थे। अख्तर ने कहा कि ऐसे कई मौके आए हैं, जब मुस्लिम चरमपंििायों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी। अख्तर ने यह तो बताया कि मुस्लिम चरमपंथी भी उनसे नाराज हें, लेकिन पूरे जवाब में भी आरएसएस की तुलना तालिबान से करने पर कोई अफसोस नहीं जताया। उल्टे पुरानी कहानी किस्सों को लेकर अपने कथन को जायज ठहराने की कोशिश की। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद क्या हालात हैं यह पूरी दुनिया देख रही है। गृहयुद्ध जैसी स्थिति हो गई है। स्कूल कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए बुर्का और हिजाब जरूरी कर दिया गया है तथा रेडियो से लेकर टीवी तक पर महिलाओं के कामकाज पर रोक लगा दी गई है। समझ में नहीं आता कि जावेद अख्तर जैसा फिल्मकार आरएसएस की तुलना तालिबान से करने पर क्यों जिद कर रहा है। जबकि देश में आरएसएस से जुड़ी भारतीय जनता पार्टी का ही शासन है। आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत जहां सभी भारतीय का डीएनए एक बताकर सद्भावना और भाईचारे की बात करते हैं, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास की बात बार बार दोहरा रहे हैं। पूरी दुनिया ने देखा है कि संकट के समय किस कूट नीति के तहत अफगानिस्तान से भारतीयों को एयरलिफ्ट कर निकाला गया। इनमें बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं और बच्चे भी थे। भारत की धरती पर उतरते ही मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के चेहरे पर सुकून और खुशी का भाव था। अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों को निकालने में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने कोई भेदभाव नहीं किया। लेकिन इसके बावजूद भी भाजपा से जुड़े आरएसएस की तुलना तालिबान से की जा रही है। सवाल उठता है कि क्या जावेद अख्तर भारतीय फिल्म उद्योग में मुस्लिम खास कर महिला कलाकारों पर रोक लगवाना चाहते हैं? यदि आरएसएस और भाजपा की तालिबानी सोच होतीे तो मुंबई के फिल्म उद्योग में महिलाएं काम नहीं कर सकती थी। जावेद अख्तर अपने वामपंथी नजरिए से कुछ भी बकवास करें, लेकिन मुंबईयां फिल्म उद्योग में तो पाकिस्तान के कलाकार भी काम कर करोड़ों रुपया कमा रहे हैं। जबकि पाकिस्तान तो तालिबान का खुला समर्थन है। पाकिस्तान की मदद से तालिबान का अफगानिस्तान पर कब्जा हुआ है, लेकिन जावेद अख्तर में पाकिस्तान की निंदा करने की हिम्मत नहीं है। जावेद तो उस आरएसएस की निंदा करेंगे जो देशभर में हजारों स्कूलों को चला कर लड़के लड़कियों को पढ़ा रहा है। जहां तक अख्तर को मुस्लिम चरमपंथियों से धमकियां मिलने का सवाल है तो इस स्थिति को उन्हें ही समझना होगा। पाकिस्तान जैसे मुस्लिम राष्ट्र में भी आतंक का माहौल है। यदि जावेद अख्तर जैसे मुसलमान इसी सोच के साथ सक्रिय रहते हैं तो तालिबान अफगानिस्तान से भारत में भी प्रवेश करेगा और इस काम में पाकिस्तान की मदद रहेगी। महिलाओं की स्वतंत्रता के पक्षधर जावेद अख्तर को यह समझना चाहिए कि भारत में तालिबान का समर्थन करने वाले ेभी बैठे हैं। यदि ऐसी सोच को बढ़ावा मिलता है तो फिर हमारे फिल्म उद्योग का क्या होगा? मुंबई को तबाह करने के लिए पहले भी आतंकी हमला हो चुका है। जावेद अख्तर को अपनी सोच बदलने की जरूरत है।