“अगर जलियांवाला बाग, पानीपत की लड़ाई और बक्सर की लड़ाई हमारे इतिहास की किताबों में आती है, तो मारीचझापी की लड़ाई क्यों नहीं जिसमें सिर्फ एक रात में 15,000 लोग मारे गए थे?”
यह सेनबारी से संदेशखली फिल्म की निदेशक संघमित्रा चौधरी द्वारा उठाया गया एक निर्विवाद प्रश्न है, जिसे 20-28 नवंबर, 2021 के दौरान गोवा में हाइब्रिड प्रारूप में आयोजित हो रहे भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के 52वें संस्करण में दर्शकों के सामने प्रदर्शित किया गया। निदेशक आज 25 नवंबर, 2021 को महोत्सव के अवसर पर एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित कर रहीं थीं।
यह फिल्म 1970 से 2019 की अवधि के दौरान सैनबारी, संदेशखली और पश्चिम बंगाल के अन्य स्थानों में राजनीतिक से प्रेरित होकर की गईं सामूहिक हत्याओं पर आधारित है। फिल्म को भारतीय पैनोरमा गैर-फीचर फिल्म श्रेणी के तहत आईएफएफआई 52 में प्रस्तुत किया गया है।
चौधरी स्मरण दिलाती हैं कि ये हत्याएं कैसे हुईं। “ये प्रभावित लोग पूर्वी बंगाल, वर्तमान में बांग्लादेश के शरणार्थी थे। वे पश्चिम बंगाल में शरण लेने आए थे। हालाँकि, उन्हें सुंदरबन के सुदूर द्वीपों में भेज दिया गया और वहाँ, दवाएँ, कपड़े और भोजन की आपूर्ति जैसी सभी ज़रूरत की सामाग्री उनसे छीन ली गईं। इसलिए, उन्होंने खेती करना शुरू कर दिया और निर्वाह के लिए जीवन यापन करना पड़ा। एक रात उनके इलाके में, नावों में सवार होकर आए कुछ अज्ञात लोगों इन शरणार्थियों को मार डाला और उनके घरों में आग लगा दी और यही वह कहानी है जिसे हमने अपनी फिल्म में चित्रित किया है।”
सेनबाड़ी की विशेष घटना के बारे में बताते हुए, जहां से यह शुरू हुई, निर्देशक ने कहा: “मैं 50 वर्ष पीछे गई और सेनबाड़ी से इस फिल्म की शुरूआत की क्योंकि यह सबसे भयावह राजनीतिक हत्याऐं थीं। वहाँ, एक पूरा परिवार मारा गया और मारे गए बेटों की माँ को अपने बेटों के ही खून से सने चावल खाने के लिए मजबूर किया गया। परिवार में केवल एक भाई था जो बच गया क्योंकि वह उस समय घर में नहीं था। बर्धमान में ऐसे लोग हैं जो आज भी इस घटना को याद करते हैं। ये ऐसी कहानियां हैं जिन्हें हमारी इतिहास की किताबों में नहीं लिखा गया है।”
इस फिल्म के निर्माण की प्रेरणा उन्हें कैसी मिली इसपर चर्चा करते हुए चौधरी ने बताया: “अब भी, हम पश्चिम बंगाल में हुई घटनाओं के बारे में सुनते हैं, लेकिन इन्हें मीडिया द्वारा कवर नहीं किया जाता है। इसलिए, मैंने सोचा कि मैं एक ऐसी फिल्म बनाऊंगी जो जनता तक पहुंचे।”
निदेशक ने प्रतिनिधियों को बताया कि इनमें से अधिकांश मामलों को जनता और मीडिया द्वारा समान रूप से न सिर्फ भुला दिया गया है, बल्कि जनता की नज़रों से छिपा भी दिया गया है।
चौधरी ने खुलासा किया कि फिल्म दिखाती है कि कैसे शोक संतप्त परिवार अभी भी उन पर हुई त्रासदियों के दर्दनाक असर को झेल रहे हैं। संदेशखली के दंगों में पंचायत चुनाव के बाद तीन युवकों की मौत हो गई थी। उनमें से एक लाश अभी भी लापता है, इसलिए उसकी पत्नी लगातार सिंदूर लगा रही है। वह कहती है, ‘जब तक मैं अपने पति के शरीर को नहीं देख लेती, मुझे विश्वास नहीं होगा कि वह नहीं है’।
उन्होंने माना कि इस तरह की फिल्म बनाने के लिए हिम्मत चाहिए। उन्होंने कहा “शुरू में, जब मैंने इस फिल्म को बनाना शुरू किया, तो मैंने एक छोटा ट्रेलर बनाया और इसे सोशल मीडिया पर डाल दिया। जल्द ही, मुझे अज्ञात लोगों से धमकी भरे फोन आने लगे लेकिन मैंने उन्हें यह कहते हुए चुनौती दी कि अगर आप आ सकते हैं तो मैं आपको दस्तावेज दिखाऊंगी।”
निर्देशक ने कहा हालांकि, फिल्म के लिए दस्तावेज प्राप्त करना बहुत कठिन था। उन्होंने कहा “जिस अवधि में घटनाएं हुईं, उस दौरान कोई सोशल मीडिया नहीं था, कोई कैमरा नहीं था; और मीडिया को अंदर नहीं जाने दिया गया। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो गवाह थे और जिन्होंने पूरी घटना बताई। तो, यह एक राजनीतिक फिल्म होने की बजाय इतिहास पर आधारित फिल्म अधिक है। मैंने गहन शोध किया और हर दृश्य को दिखाने की पुष्टि के लिए दस्तावेज हैं- या तो वे लोग जिन्होंने घटनाओं को देखा है या मेरे द्वारा एकत्र किए गए समाचार पत्रों की कटिंग। कुछ टीवी फुटेज भी हैं, जो मुझे बाद में मिलीं।”
चौधरी ने स्वीकार किया कि दस्तावेज प्राप्त करना और फिल्म बनाना भी बहुत पीड़ादायी था। “मैं सभी प्रभावित क्षेत्रों में गयी और शोक संतप्त लोगों से बात की। जब उन्होंने अपने अनुभव सुनाए, तो मैंने उनके गालों पर आंसू बहते हुए देखे। वे अभी भी उन घटनाओं के कारण लगे घावों की भयानक यादों से मुक्त नहीं हुए हैं।”
निर्देशक ने कहा कि इस फिल्म को बनाने में काफी विस्तृत शोध किया गया है। उन्होंने कहा “मैंने 2018 में इस फिल्म की योजना बनाई और फिर, मैंने फिल्म के लिए शोध करना शुरू कर दिया। मुझे पता चला कि इस पूरी अवधि में करीब 15-16 घटनाएं हुई हैं।
फिल्म का ट्रेलर दिखाते हुए, चौधरी ने बताया कि वह इसे एक वृत्तचित्र के बजाय एक दस्तावेज-फीचर क्यों कहती हैं। “डॉक्यूमेंट्री के कुछ दृश्य इसलिए बनाए गए क्योंकि हमें फुटेज नहीं मिले। तो, हमें उन्हें फिर से बनाना पड़ा; इसलिए, यह फिल्म पूरी तरह से एक डॉक्यूमेंट्री नहीं बल्कि एक डॉक्यूमेंट-फीचर है।”
उन्होंने याद किया कि उन्हें सीबीएफसी द्वारा फिल्म को प्रमाणित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, लेकिन एक बार बोर्ड द्वारा मंजूरी मिलने के बाद, यह वायरल हो गई।
निदेशक ने प्रतिनिधियों को बताया कि हम अभी भी उन घटनाओं के लिए न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिन्हें उन्होंने अपनी फिल्म में चित्रित किया है। “उन पीड़ितों और उनके परिवारों को न्याय नहीं मिला है। मैं चाहूंगी कि न केवल पूरा भारत बल्कि पूरी दुनिया इस फिल्म को देखे, ताकि वे जान सकें कि पश्चिम बंगाल में क्या हुआ था।”
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एमजी/एएम/एसएस