इंसान को इंसान ही रहने दीजिए जाति नहीं कर्म से महान बनता है इंसान

इंसान को इंसान ही रहने दीजिए जाति नहीं कर्म से महान बनता है इंसान
सवाई माधोपुर 7 अगस्त। सीधी बात तो ये है कि इंसान को इंसान ही रहने दीजिये। मत पड़िये भेदभाव में, जात-पात में। ईश्वर ने हमें इंसान बनाया है। जाति और सामाजिक व्यवस्था इंसानों ने बनाई है। सदियों से जातियों की बेड़ियों में जकड़ कर इंसानों को मानसिक गुलाम बनाये रखा गया। उनकी सोचने-समझने की क्षमता को क्षीण किया गया। अच्छे-खासे इंसान को शिक्षा, अध्ययन-अध्यापन और समाज की मुख्यधारा से वंचित कर पशुवत जीवन जीने को मजबूर किया गया। जो सामाजिक व्यवस्था योग्यता आधारित अथवा कर्म प्रधान होनी चाहिए थी। उसे जन्म प्रधान बनाकर मानवता के साथ घोर अन्याय किया गया। किसी सभ्य तथा विकसित अथवा चिंतनशील समाज अथवा देश में ऐसी कुप्रथाएं नहीं हो सकती। आश्चर्य और पीड़ा इस बात की है कि भारत आजाद के बाद भी जातिगत सामाजिक व्यवस्था के मकड़-जाल से उबर नहीं सका है।
जाति नहीं कर्म से बनता है मनुष्य महान – सर्वविदित है कि श्रेष्ट बनने के लिए अच्छे कर्म ही जरुरी है। कबीर दास जी जुलाहे के घर पैदा हुए। उन्होंने ऐसे कर्म किये कि सारी दुनिया उनकी अनुयायी हो गई। उन्होंने कहा भी कबीर जब हम पैदा भये जग हँसे, हम रोय। ऐसी करनी कर चलों, हम हँसे, जग रोय।।
कबीर दास जी ने अपनी वाणी और दोहों के माध्यम से शोषितों और वंचितों की आवाज को मुखर किया,उनकी वेदना और पीड़ा को उजागर किया और निदान भी किया। रूढ़ीवादी सामाजिक व्यवस्था का विरोध किया। उन्होंने कुरीतियों पर चोट की और समानता तथा प्रेम भाईचारे का सन्देश दिया।
‘जाति पाति पूछे नहीं कोय। हरी को भजे सो हरी का होय।।‘ उन्होंने कहा कि
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोई। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
कबीर दास जी ने जातीय व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया और इसे सार हीन बताया।
कबीर दास जी ने कहा कि ष्उंचे कुल क्या जनमियां, जेकरणाी उंच न होय। सुवर्ण कलस सुरा भरा,साधु निंदा सोय।। अर्थात उंची जाति में जन्म लेकर भी कोई व्यक्ति यदि कर्म अच्छे नहीं करता है तो उसका जीवन निरर्थक और समाज के लिए महत्वहीन है। जिस प्रकार सोने (स्वर्ण) का कलश है किन्तु उसमें सुरा भरी हुई है तो भी वह प्रशंसा नहीं निंदा का पात्र है। कर्म ही मान्य है। जातीय श्रेष्ठता महत्वहीन है। व्यक्ति की जाति मत पूछो, अगर पूछना है जानना है, तो उसके गुण और ज्ञान को पूछिए। क्योंकि व्यक्ति के गुण अथवा ज्ञान का मोल है, कर्म का मोल है। बाहरी आवरण चाहे कितना भी सुन्दर क्यों न हो फिर भी उसका कुछ खास महत्त्व नहीं है। बाहरी आवरण केवल मात्र दिखावा है।
कबीर दास जी के साथ ही गुरू नानक देव, संत रविदास जी जैसे महान संतों ने मानवतावादी दृष्टिकोण रखने पर बल दिया है। गुरू नानक देव ने तो पशु पक्षियों के प्राकृतिक अधिकारों की भी पैरवी की है। उन्होंने कहा है कि ष्राम दी चिरिया राम दा खेत। खा लो चिरिया भर-भर पेट।ष् वहीं रैदास जी ने कहा है कि “जाति-जाति में जाति हैं,जो केतन के पात। रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।“ अर्थात केले के पेड़ अथवा तने को जिस प्रकार छिलने पर पत्ता मिलता है और उसे छीलने पर नीचे भी पत्ता मिलता है,लगातार छीलने पर तना खत्म हो जाता है, अंत तक पत्ते पर पत्ता ही मिलता है।
इसी प्रकार हमारा समाज जातियां पर जातियों में विभाजित है,जो कि सारहीन है क्यो कि इस व्यवस्था ने हमे जातियों में तो विभाजित कर दिया किन्तु मनुष्यता से दूर कर दिया है।
’प्रकृति ने नहीं किया भेदभाव’ – ईश्वर ने सभी मनुष्यों को एक जैसा बनाया है। प्रकृति ने सभी को सिर,आंख,मुंह,नाक,कान और हाथ पैर समान रूप से दिए हैं। लोग दिखने में चाहे अलग-अलग हो, उनका बाहरी आवरण काला-गोरा, सुन्दर अथवा कुरूप हो सकता है लेकिन उनके निर्माण की तकनीक एक जैसी ही है। विधाता ने बनाने में कोई भेद नहीं किया है। उनका आधार और संचालन एक जैसा है।
’सुविधाओं और शोषण के लिए विभाजन’ – भारतीय समाज में जातीय व्यववस्था सुविधा और दिखावे के रूप में हमेशा ही विद्यमान रही है। हम मनुष्यों ने अपनी सुविधा और दिखावे के साथ लोगों का शोषण करने के लिए समाज को जाति वर्गों में बाँट दिया है। जो पहली पंक्ति में आ गए उन्होंने अपने आप को उच्च अथवा श्रेष्ठ वर्ग घोषित कर दिया और अपनी स्वघोषित श्रेष्ठता को जन्म सिद्ध अधिकार मान लिया। पहली पंक्ति से अन्तिम छोर तक क्रमवार जातीय श्रेष्ठता का सर्प फुंकार मारता है।
निचले तबके के लोगों को जन्म से नीच कहा जाने लगा। उनका शोषण होने लगा। यह शोषण सदियों तक चलता रहा। व्यवस्था का ताना बाना ऐसा बुन गया कि पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे,पांचवे और इस श्रृंखला में विभिन्न वर्गों और जातियों में बंट गए। जो दूसरे नंबर पर है वो पहले नंबर से तो अपने आप को छोटा मानते हैं लेकिन तीसरे नम्बर से बड़ा होना भी वह तत्परता से जता देते हैं। अन्तिम छोर के वर्गों तक अन्याय, शोषण, तिरस्कार, अपमान कालिया नाग के फनों जैसे विकराल और विशाल हो जाते हैं।
’छोटी जातियों में भी जातीय श्रेष्ठता का दंभ’ – बड़ी जाति के लोग तो बाकि को छोटा मान उनसे छुआछूत का भेद करते ही लेकिन आश्चर्य और विडम्बना तो ये है कि छोटी जाति के लोग भी अपने से छोटी जाति के लोगों के साथ वही छुआछूत का व्यव्हार करते हैं। छोटी जाति के लोग उनसे छोटी जाति के लोगों पर और उनसे छोटी जाति के लोग उनसे छोटी जाति के लोगों पर अपना रौब दिखाते हैं, अत्याचार करते हैं। जातियों में श्रेष्ट बनने की होड़ लगी हुई है। अन्तिम छोर की जातियों को और अधिक घृणा और तृस्कार सहना पड़ता है,जिसे उन्होंने नियति मान लिया है।
’जातीय शोषण अमानवीय और अनुचित’ – वास्तव में समाज को विचार करना होगा कि वो जातियों की होड़ में फंसना चाहते है या इंसान बनकर स्वयं तथा मानवता का कल्याण करना चाहते हैं। बड़ी जाति होने का घोष अपने अहम की तृप्ति मात्र है। जाति के आधार पर शोषण,तिरस्कार अथवा घृणा करना अमानवीय और अनुचित है। सम्पूर्ण मानवता के लिए ऐसे कृत्य कलंक हैं और प्राकृतिक न्याय की भावना के विपरीत है। एक राष्ट्र के रूप में उभरकर ही हम अपने विश्वगुरू रूप को साकार कर सकते हैं।
’वंचितों के लिए वरदान आजादी और संविधान’ – भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। आजादी के 75 साल पूरे होने पर हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। 26 जनवरी 1950 को बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडर द्वारा बनाया गया स्वतंत्र भारत का संविधान लागू हो गया। संविधान के द्वारा सभी को समानता का अधिकार प्रदान किया गया। शोषित और वंचितों को शिक्षित होने और समानता के साथ अपना विकास करने का अवसर प्रदान किया गया। हजारों साल के शोषण, तिरस्कार और अपमान से छुटकारा दिलाने के उपाय किये गये।
यह समाज ही है जिसने लोगों को जातियों की बेड़ियों में जकड़ा है। वंचितों ने हजारों साल तक जाति व्यवस्था के दंश को झेला है। अपमान और तिरस्कार का विष पिया है। कोई जान बूझ कर स्वयं ही वंचित नहीं हो जाता। यह समाज ही जो लोगों को उनकी जात पूछता भी और बताता भी है। क्लिष्ट सामाजिक व्यवस्था इंसानों को न चाहते हुए हीनता का भाव महसूस कराती है। आरक्षण पीढ़ीयों से इस अपमान को सहने वालों के लिए समाजिक समानता से भी बढ़कर मानसिक समानता का अवसर प्रदान करता है। आरक्षण कुपोषित सामाजिक व्यवस्था के शिकार मनुष्यों को पोषित कर रहा है, ताकि उनका भी सामान्य इंसानों की तरह बराबरी से मानसिक विकास हो सके और तब वो भी दौड़ने के लिए बराबरी के रेखा पर आकर खड़े हो जाएं। पांच हजार साल का पिछड़ा पन केवल कुछ सालों में खत्म नहीं होने वाला है। इसके लिए समय लगेगा।
कर्म की प्रधानता ही सही अर्थों में मानवतावादी और न्याय प्रिय है। व्यक्ति को उसकी योग्यता, गुणों अथवा कर्म के आधार पर पहचाना जाए और आगे बढ़ना का अवसर प्रदान किया जाए। जब एक चपरासी का बेटा पढ़ लिखकर आईएएस बन जाता है, तो उसे चपरासी का बेटा नहीं आईएएस ही कहते हैं। इसी प्रकार एक रिक्शे वाले का बेटा पढ़ाई कर डॉक्टर बन जाता है तो ऐसे में उसे रिक्शे वाला नहीं डॉक्टर कहा जाता है। यही न्यायोचित और प्राकृतिक व्यवस्था है।